18 इन्च × 24 इन्च
कैनवास पर एक्रलिक रंग
कहते हैं, कि तुम भूल जाओ
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
आँखों में डर की वह तस्वीर,
माथे पर वो तनाव की लकीर,
और रंग उड़े उन चेहरों को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
हर पडोसी पर शक की नजर,
मुहल्ले की कानाफूसी से डर,
कराहते वक्ष की पीड़ा को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
हवा में आतंक की गंध को,
वितस्ता के टूटते तटबन्ध को
चिनार के उन घायल वृक्षों को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
मकानों की खण्डहर दीवारें,
मन्दिरों के खामोश नज़ारे,
और तीर्थों के सूने आँगन को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
वह फूलों की लुटी हुई सुगंध,
निर्मल हवा में फैली वह दुर्गंध,
नुंचे पड़े श्वेत कमल झील के,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
गंगा-जमुनी तहज़ीब थी धोखा,
दोस्त ने दुश्मन बन खंजर घोंपा,
और सीने के उस गहरे घाव को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
फिर घर लौट कर जाने की आस,
झेलम के दिव्य अमृत की प्यास,
और सुनहरी बर्फीली वादी को,
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
शिवरात्रि पर शंखों का नाद,
क्षीर भवानी का पुन्य प्रसाद
केसरिया पकवानों का स्वाद
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं?
कहते हैं कि मैं भूल जाऊँ उसे,
उस वादी में भूलूँ भला किसे,
बसी है जहाँ पुरखों की आत्मा,
बोलो, कैसे भूल पाऊँ मैं?
वे कहते हैं, कि भूल जाओ
बोलो, कैसे भूल जाऊँ मैं ?
मेरी यह कलाकृति श्रद्धांजलि है उन सब वीर आत्माओं को, जिन्होंने महादेव की तपोभूमि की पावनता को अक्षुण्ण रखने के लिए अपनी आहूतियाँ दी हैं। युसुफ भांडारकर